Thursday, 7 March 2013

अंग्रेजो वाली रौब नहीं रही अंग्रेजी की




उदारीकरण के बीस सालों में हिन्दुस्तान के मध्यमवर्ग का जो नवीनीकरण और विस्तार हुआ है उसने इसकी भाषा में बड़ा बदलाव किया है। एक ऐसा दुभाषिया मध्यमवर्ग बन गया है जो अपने खानपान और रहनसहन से लगता तो अंग्रेज़ी वाला है मगर वो हिन्दी वाला भी है। उदारीकरण से पहले हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग अलग अलग था। अंग्रेजी वाले मध्यमवर्ग की पहचान सत्ता, अमीरी और बोर्डिंग स्कूल से पढ़कर आई पीढ़ी के खानदान वाली थी तो हिन्दी की पहचान विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग,अकादमियों,दफ्तरों में खपाये गए बाबुओं के विशाल मध्यमवर्ग से होती थी। लेकिन अब क्या कोई अंग्रेजी भाषी और हिन्दी भाषी मध्यमवर्ग में फर्क कर सकता है। क्या दोनों मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं में कोई अंतर रह गया है।

मुझे लगता है अंग्रेजी और हिन्दी की दीवार टूट गई है। अंग्रेजी अब गोरों की भाषा नहीं रहे। अब आप अंग्रेजी बोलकर अंग्रेज़ नहीं कहलाते। अंग्रेज़ी का उपनिवेशवाद वाला केंचुल उतर गया है। अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल की प्रकृति भी बदल गई है। ब्रिटिश सेना की कैंटोनमेंट इलाकों में बने इंगलिश मीडियम स्कूलों, रजवाड़ों के छोड़े गए महलों या भव्य इमारतों वाले स्कूलों, दार्जीलिंग शिमला या नैनिताल की पहाड़ियों वाले स्कूलों का वर्चस्व टूट गया है। इस दायरे से निकालने में मिशनरी कावेंट स्कूलों का बड़ा हाथ रहा। जब ऐसे स्कूल बेतिया,गोरखपुर से लेकर रांची और दिल्ली के उन इलाकों में चलते हुए कई दशक पूरे कर चुके थे जहां से अंग्रेज़ी बोलने वाला वो मध्यम वर्ग बन रहा था जो अंग्रेजी की सत्ता की दुनिया के दूसरे दर्जे के काम में खपाया जा रहा था। इनका ज्यादातर संबंध मैनेजर वाले कामों से रहा।

इसके बाद दौर शुरू हुआ पब्लिक स्कूलों का जो धीरे धीरे एक व्यापारिक श्रृंखला में बदलता हुआ एक ही नाम से देश के कई शहरों में खुलने लगा। जिनसे निकलने वाले लोगों को अंगेजी की सत्ता की दुनिया में तीसरे पायदान पर खड़े होने का मौका मिला। अब इन तीनों पायदानों में काफी कुछ बदल गया है। बदलाव इतना तेज था कि तीसरे पायदान का अंग्रेजी भाषा कब पहले पायदान पर पहुंच गया पता ही नहीं चला। जानकार इसे छोटे शहरों की कामयाब कहानियों से आगे देख ही नहीं सके। व्याकरण और शेक्सपीयर जैसी शुद्ध अंग्रेजी का दंभ टूट गया । आप किसी भी तरह से और कितने भी प्रकार से अंग्रेजी बोल सकते हैं। गांवों में इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बच्चे भले ही पूरी अंग्रेजी न जानते हों, सही तरीके से नहीं बोल पाते हो मगर उन्हें यह पता लग गया है कि अंग्रेजी क्या है। इसीलिए वे होटल,शापिंग माल से लेकर डिस्को के बाहर दरवान बन कर खड़े होते हैं और आराम से दो चार लाइन अंग्रेजी बोल जाते हैं। यह धारणा टूट गई है कि कोई अंग्रेजी बोलेगा तो आप यही सोचेंगे कि किसी शाही खानदान का होगा।

यहीं वो बिन्दु है जहां हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग एक दूसरे मिलता जुलता लगने लगता है। उदारीकरण के दौर में सरकारी सिस्टम के बाहर जो अवसर पैदा हुए उसमें एक ऐसा मध्यम वर्ग पैदा हो गया जो दुभाषिया था। उसने काम अंग्रेजी में किया लेकिन मनोरंजन हिन्दी में। अपने गांव से निकल कर पब्लिक स्कूलों से हासिल अंग्रेजी के सहारे वो बंगलुरू से लेकर अमेरिका तक गया मगर उस समृद्धि से पीछे अपने परिवार की हिन्दी को भी समृद्ध करता रहा। इस प्रक्रिया से कई भारतीय भाषाओं के पास आर्थिक शक्ति आ गई। हिन्दी वाला मध्यमवर्ग भी वही होंडा सिटी कार रखता है जिसे अंग्रेजी वाला चलाता है। वाशिंग मशीन से लेकर एलसीडी टीवी तक के उपभोग में समानता आ चुकी है। पहनावे से आप हिन्दी अंग्रेजी टाइप में फर्क नहीं कर सकते। वो जमाना जा चुका था जब उपभोग की ऐसी वस्तुओं पर उन्हीं का एकाधिकार था जो अंग्रेजी की सत्ता से आते थे और विदेशों से स्मगल कर लाते थे। यही वो दुभाषिया मध्यमवर्ग है जो अंग्रेजी को बाहर और हिन्दी को भीतर की भाषा मान कर जीता है। जिस तक पहुंचने के लिए हिन्दी के तमाम सीरियलों की बोलियों में आई विविधताओं को गौर करना चाहिए। किसी में गुजराती टोन है तो किसी में बिहारी तो किसी में अवधी। जन माध्यमों में मनोरंजन का हिस्सा सबसे बड़ा है। इसलिए पहले का यह सिद्धांत टूट गया कि जनमाध्यम होने के कारण मनोरंजन की एक स्टैंडर्ड भाषा होनी चाहिए। इस प्रक्रिया ने हिन्दी और अंग्रेजी के तनाव को कम कर दिया। दोनों के अहंकार को तोड़ दिया।

लिहाज़ा दोनों को आपस में घुलना मिलना था ही। हिन्दी फिल्मों के गानों में अंग्रेजी हिन्दी की तरह आ गई है। उनके नाम अंग्रेजी हिन्दी युग्मों के होने लगे हैं। कई बार पूरी तरह से अंग्रेजी के ही होते हैं। आम जीवन में हम इसी तरह से दोनों भाषाओं को टर्न कोट की तरह बरतने लगते हैं। अदल बदल कर पहन लेते हैं। दूसरी बात यह भी हुई कि यह धारणा टूट गई कि रोज़गार के अवसर से ही भाषा का विकास जुड़ा है। मैथिली की पत्रिकाओं का वितरण इसलिए बढ़ा है क्योंकि इस भाषा को बरतने वाले अमरिका में जाकर समृद्ध हुए हैं। इन लोगों ने कमाया तो अंग्रेजी से मगर हिस्सा मिला मैथिली को भी। हिन्दी को भी। इसी तरह से हिन्दुस्तान के भीतर अवसरों की तलाश में जो विस्थापन हुआ है उसने भी अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं को संजीवनी दी है। दिल्ली के कई इलाकों में भोजपुरी,बुंदेलखंडी और मैथिली,कुमाऊंनी के म्यूजिक वीडियो घरों में देखे जाते हैं। चुपचाप इनका एक बाज़ार बन गया है। दिल्ली में ही मैथिली भाषा में एक न्यूज़ चैनल चलता है। दिल्ली में लाखों की संख्या में आए मज़दूर अपने मोबाइल फोन पर अपनी भाषा के म्यूजिक वीडियो डाउनलोड कर सुनते रहते हैं और जैसे ही कोई ग्राहक आता है दो चार लाइन अंग्रेजी के बोलकर सामान्य हो जाते हैं।

कहने का मतलब है कि भाषा का विकास अकादमी और व्याकरण से नहीं होता है। व्याकरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन व्याकरण कोई ज़ड़ चीज़ नहीं है। अगर यह जड़ होता तो आज लाखों लोग अंग्रेजी बोलने का साहस नहीं कर पाते और इसी प्रकार से हिन्दी बोलने का भी साहस नहीं कर पाते। सिर्फ इतना ही नहीं इससे भाषाओं की राजनीतिक पहचान भी बदली है। हिन्दी अब राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को व्यक्त करने वाली एकमात्र भाषा नहीं रही। वो हमेशा गरीबों की आवाज़ वाली भाषा नहीं रही। हिन्दी अब मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भी भाषा है। अंग्रेजी भी औपनिवेशिक संस्कारों वाले तबके की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी भी मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भाषा है। इन दोनों का राजनीतिक मिलन देखना हो तो आप अन्ना आंदोलन और दिल्ली गैंगरेप के बाद रायसीना हिल्स पर आ धमके हज़ारों से लेकर लाखों युवाओं के स्लोगन को देखिये। उनमें हिन्दी भी है और अंग्रेजी भी है। जिसकी चिन्ता में वो देश आ गया है जो अब तक सिर्फ हिन्दी की चिन्ताओं में थी। हिन्दी की चिन्ताओं में नागरिकता को वो बोध आ गया है जो अब तक अंग्रेजी की चिन्ताओं में ही थी। इस बदलाव में सोशल मीडिया का एक बड़ा रोल है। जिसके एक ही पन्ने पर हिन्दी भी सरकती है और अंग्रेजी भी। दोनों लड़ते नहीं,साथ-साथ जीना सीख गए हैं।

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